गुरूर है इतना अपनी बाहों का
तो क्यूँ ना आहें भरें, क्यूँ ना सर पर गिरें?
गर हम आब-ए-ज़र के पर्दे में
लिपट गये हैं तो रेहने दो
गर कुल्फ़त हवा को छेड़ा है
तो फ़िर याद करें? कि आहें भरें?
क्यूँ ना रेहमत है तो रेहने दो
कल मैदां-ए-फ़लक में बहार है
गर कल खार ज़ुबां में हो आतिश
मीं के कूचे में गुबार है
गर कल आब-ए-ज़र से दम निकले
तो कल फ़ुर्सत है, फ़राग है